कथाएँ

  • हनुमान की भक्ति
    राम के आने की खुशी में जगह-जगह समारोह हो रहे थे। राम के भक्तों में काम बांटे जा रहे थे। किसी को सजावट और किसी को रोशनी के काम दिए गए। कुछ लोगों को भोजन और तरह-तरह के पकवान बनाने की ज़िम्मेदारी दी गईं तो कुछ लोगों को स्वागत और आवभगत की ज़िम्मेदारी दी गई। इस तरह से सारे काम भक्तों में बांट दिए गए।

    उसी समय हनुमान वहां पहुंचे। वे राम के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और कहने लगे, भगवन, मुझे भी कुछ काम सौंप दीजिए। मैं तो आपका परम भक्त हूं। राम परेशान हो गए क्योंकि सारे कामों का विभाजन पहले ही हो चुका था। अब अगर किसी भक्त से काम वापिस लेकर हनुमान के हाथों में सौंपा जाता, तो वह भी उचित नहीं लगता। श्रीराम सोच में डूब गए। एकाएक श्रीराम को जम्हाई आई, तो उन्होंने चुटकी बजाकर सुस्ती भगाई और चुटकी के साथ ही श्रीराम को एक विचार आया। उन्होंने हनुमान जी से कहा, हनुमान तुम्हरा कार्य यह है कि जब भी मैं जम्हाई लूं, तुम चुटकी बजाना। हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कार्य स्वीकार कर लिया। भगवान ने एक बार फिर जम्हाई ली और हनुमान जी ने तुरंत चुटकी बजाई।
  • बजरंगबली को दिया हनुमान नाम
    सभी के कष्ट-क्लेश दूर करने वाले पवन कुमार श्री हनुमान सभी की आस्था और विश्वास के केंद्र हैं। वैसे तो अंजनीपुत्र के कई नाम है परंतु उनका नाम हनुमान सर्वाधिक प्रचलित है। इनका बचपन में नाम मारूति रखा गया था लेकिन बाद में इन्हें हनुमान के नाम जाना जाने लगा।

    एक रोचक प्रसंग है जिसकी वजह से मारूति को हनुमान नाम मिला। श्रीराम चरित मानस के अनुसार हनुमानजी की माता का नाम अंजनी और पिता वानरराज केसरी है। हनुमानजी को पवन देव का पुत्र भी माना जाता है।

    केसरी नंदन जब काफी छोटे थे तब खेलते समय उन्होंने सूर्य को देखा। सूर्य को देखकर अजंनीपुत्र ने सोचा कि यह कोई खिलोना है और वे सूर्य की उड़ चले। जन्म से ही मारूति को दैवीय शक्तियां प्राप्त थी अत: वे कुछ ही समय में सूर्य के समीप पहुंच गए और अपना आकार बड़ा करके सूर्य को मुंह में निगल लिया। पवनपुत्र द्वारा जब सूर्य को निगल लिया गया तब सृष्टि में अंधकार व्याप्त हो गया इससे सभी देवी-देवता चिंतित हो गए।
  • हनुमानजी को सिंदूर चढाने का प्रसंग
    इस संबंध में शास्त्रों में कई कथाएं बताई गई हैं इन्हीं में बहुप्रचलित एक कथा इस प्रकार है। रावण वध पश्चात जब श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान एवं अन्य सहित अयोध्या आए। जहां श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ। इसके पश्चात एक दिन हनुमानजी ने देखा कि माता सीता मांग में सिंदूर लगा रही हैं। उत्सुकता वश बजरंगबली में माता से सिंदूर लगाने का कारण पूछा। तब माता सीता ने बताया कि इस प्रकार सिंदूर लगाने से मेरे स्वामी श्रीराम को स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की प्राप्ति होगी। यह सुनकर हनुमानजी ने सोचा कि यदि वे अपने पूरे शरीर पर सिंदूर लगाएंगे तो उनके स्वामी श्रीराम की पूर्ण भक्ति प्राप्त हो जाएगी। यही सोचकर उन्होंने पूरे शरीर पर सिंदूर लगा लिया। इसी घटना के कारण भगवान हनुमानजी को सिंदूर चढ़ाने की प्रथा प्रारंभ हुई। ऐसी मान्यता है।

    मंगलवार के दिन हनुमान जी का जन्म हुआ था इसलिए मंगलवार को हनुमानजी के मंदिरों मे भारी भीड होती है। पुजारी भक्तों के माथे पर सिंदूर का टीका लगाते हैं। सिंदूर तो महिलाएं भी अपनी मांग में भरती हैं फिर इसका टीका क्यों इसकी भी एक कथा है रामचंद्र जी के राजतिलक के बाद सभी राजा अपने अपने राज्यों को लौट गये थे। सुग्रीव व विभीषण भी चले गयेए परंतु हनुमानजी पूर्व वचन को निभाने के लिए राम की सेवा के लिए अयोध्या में ही डटे रहे। एक दिन हनुमानजी जब भोजन के समय भोजन करने रसोई में गये तो अंदर से आवाज आई बठो अभी आती हूं। सीता माता की आवाज सूनकर वे पालथी मारकर बैठ गये। थोडी देर में सीता माता मांग में सिंदूर भरकर आई बोली सिंदूर लगा रही थी इसलिए बीच में नहीं आ पाई तुम्हें कुछ देर बैठना पड़ा।

    हनुमान जी ने माता सीता से पूछा माता! यह सिंदूर क्यों लगाया जाता है तो वह बोलीं तुम्हारे प्रभु के कल्याण के लिए।

    इतना सुनना था कि वह एकदम से उठे और थोडी देर में वापस लौटकर आये तो सीता जी उन्हें देखकर खिलखिला उठीं। हनुमान जी अपने सारे शरीर पर सिंदूर पोतकर आये थे। माता सीता से रहा नहीं गया तो पूछ बैठी यह क्या कर आये हो हनुमान !

    इतना सारा सिंदूर लगाने से हमारे प्रभु का ढेर सारा कल्याण होगा। हनुमान जी ने कहा। उनकी बातें सुनकर सीता जी की आंखे ममता से भर आई। तभी से सीताजी के आशीर्वाद से सिंदूर का टीका लगाने से प्रभुराम व हनुमान दोनों का आशीर्वाद बना रहता है। सीता ने साथ ही यह भी आशिर्वाद दिया हनुमान कलियुग मे तुम्हारी प्रधान रुप से पूजा होगी और सच्चे मन से तुम्हें जो याद करेगा उस पर तुम्हारे प्रभु राम की भी सदैव कृपा बनी रहेगी। जहां राम का मंदिर होगा वहां तुम्हारी मूर्ति की भी अवश्य स्थापना की जाएगी।
  • रोका था हनुमानजी ने भीम का रास्ता
    कमल पुष्प की खोज में चलते-चलते भीमसेन एक केले के बगीचे में पहुंच गए। यह बगीचा गंधमादन पर्वत की चोटी पर कई योजन लंबा-चौड़ा था। भीमसेन नि:संकोच उस बगीचे में घुस गए। इस बगीचे में भगवान श्रीहनुमान रहते थे। उन्हें अपने भाई भीमसेन के वहां आने का पता लग गया। (धर्म ग्रंथों के अनुसार हनुमानजी पवन देवता के पुत्र हैं और भीम भी, इसलिए ये दोनों भाई हैं।) हनुमानजी ने सोचा कि यह मार्ग भीमसेन के लिए उचित नहीं है। यह सोचकर उनकी रक्षा करने के विचार से वे केले के बगीचे में से होकर जाने वाले संकरे मार्ग को रोककर लेट गए।

    चलते-चलते भीम को बगीचे के सकड़े मार्ग पर लेटे हुए वानरराज हनुमान दिखाई दिए। उनके ओठ पतले थे, जीभ और मुंह लाल थे, कानों का रंग भी लाल-लाल था, भौंहें चंचल थीं तथा खुले हुए मुख में सफेद, नुकीले और तीखे दांत और दाढ़ें दिखती थीं। बगीचे में इस प्रकार एक वानर को लेटे हुए देखकर भीमसेन उनके पास पहुंचे और जोर से गर्जना की।

    हनुमानजी ने अपने नेत्र खोलकर उपेक्षापूर्वक भीमसेन की ओर देखा और कहा कि- तुम कौन हो और यहां क्या कर रहे हो। मैं रोगी हूं, यहां आनंद से सो रहा था, तुमने मुझे क्यों जगा दिया। यहां से आगे यह पर्वत अगम्य है, इस पर कोई नहीं चढ़ सकता। अत: तुम यहां से चले जाओ।

    हनुमानजी की बात सुनकर भीमसेन बोले- वानरराज। आप कौन हैं और यहां क्या कर रहे हैं। मैं तो चंद्रवंश के अंतर्गत कुरुवंश में उत्पन्न हुआ हूं। मैंने माता कुंती के गर्भ से जन्म लिया है और मैं महाराज पाण्डु का पुत्र हूं। लोग मुझे वायुपुत्र भी कहते हैं। मेरा नाम भीमसेन है।

    भीमसेन की बात सुनकर हनुमानजी बोले- मैं तो बंदर हूं, तुम जो इस मार्ग से जाना चाहते हो तो मैं तुम्हें इधर से नहीं जाने दूंगा। अच्छा तो यही हो कि तुम यहां से लौट जाओ, नहीं तो मारे जाओगे। यह सुनकर भीमसेन ने कहा कि- मैं मरुं या बचूं, तुमसे तो इस विषय में नहीं पूछ रहा हूं। तुम उठकर मुझे रास्ता दो।

    हनुमान बोले- मैं रोग से पीडि़त हूं, यदि तुम्हें जाना ही है तो मुझे लांघकर चले जाओ। भीमसेन बोले- संसार के सभी प्राणियों में ईश्वर का वास है, इसलिए मैं तुम्हारा लंघन कर परमात्मा का अपमान नहीं करुंगा। यदि मुझे परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान न होता तो मैं तुम्हीं को क्या, इस पर्वत को भी उसी प्रकार लांघ जाता जैसे हनुमानजी समुद्र को लांघ गए थे। हनुमानजी ने कहा- यह हनुमान कौन था, जो समुद्र को लांघ गया था? उसके विषय में तुम कुछ कह सकते हो तो कहो। भीमसेन बोले- वे वानरप्रवर मेरे भाई हैं। वे बुद्धि, बल और उत्साह से संपन्न तथा बड़े गुणवान हैं और रामायण में बहुत ही विख्यात हैं। वे श्रीरामचंद्रजी की पत्नी सीताजी की खोज करने के लिए एक ही छलांग में सौ योजन बड़ा समुद्र लांघ गए थे। मैं भी बल और पराक्रम में उन्हीं के समान हूं। इसलिए तुम खड़े हो जाओ मुझे रास्ता दो। यदि मेरी आज्ञा नहीं मानोगे तो मैं तुम्हें यमपुरी पहुंचा दूंगा। भीमसेन की बात सुनकर हनुमानजी बोले- हे वीर। तुम क्रोध न करो, बुढ़ापे के कारण मुझमें उठने की शक्ति नहीं है इसलिए कृपा करके मेरी पूंछ हटाकर निकल जाओ।

    यह सुनकर भीमसेन हंसकर अपने बाएं हाथ से हनुमानजी पूंछ उठाने लगे, किंतु वे उसे टस से मस न कर सके। फिर उन्होंने दोनों हाथों से पूंछ उठाने का प्रयास किया लेकिन इस बार भी वे असफल रहे। तब भीमसेन लज्जा से मुख नीचे करके वानरराज के पास पहुंचे और कहा- आप कौन हैं? अपना परिचय दीजिए और मेरे कटु वचनों के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए।

    तब हनुमानजी ने अपना परिचय देते हुए कहा कि इस मार्ग में देवता रहते हैं, मनुष्यों के लिए यह मार्ग सुरक्षित नहीं है, इसीलिए मैंने तुम्हें रोका था। तुम जहां जाने के लिए आए हो, वह सरोवर तो यहीं है। हनुमानजी की बात सुनकर भीमसेन बहुत प्रसन्न हुए और बोले- आज मेरे समान कोई भाग्यवान नहीं है। आज मुझे अपने बड़े भाई के दर्शन हुए हैं। किंतु मेरी एक इच्छा है, वह आपको अवश्य पूरी करनी होगी। समुद्र को लांघते समय आपने जो विशाल रूप धारण किया था, उसे मैं देखना चाहता हूं। भीमसेन के ऐसा कहने पर हनुमानजी ने कहा- तुम उस रूप को नहीं देख सकते और न कोई अन्य पुरुष उसे देख सकता है। सत्ययुग का समय दूसरा था और त्रेता और द्वापर का भी दूसरा है। काल तो निरंतर क्षय करने वाला है, अब मेरा वह रूप है ही नहीं।

    तब भीमसेन ने कहा- आप मुझे युगों की संख्या और प्रत्येक युग के आचार, धर्म, अर्थ और काम के रहस्य, कर्मफल का स्वरूप तथा उत्पत्ति और विनाश के बारे में बताईए।

    भीमसेन के आग्रह पर हनुमानजी ने उन्हें कृतयुग, त्रेतायुग फिर द्वापरयुग व अंत में कलयुग के बारे में बताया।

    हनुमानजी ने कहा कि- अब शीघ्र ही कलयुग आने वाला है। इसलिए तुम्हें जो मेरा पूर्व रूप देखना है, वह संभव नहीं है।

    हनुमानजी की बात सुनकर भीमसेन बोले- आपके उस विशाल रूप को देखे बिना मैं यहां से नहीं जाऊंगा। यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा है तो मुझे उस रूप में दर्शन दीजिए।

    भीमसेन के इस प्रकार कहने पर हनुमानजी ने अपना विशाल रूप दिखाया, जो उन्होंने समुद्र लांघते समय धारण किया था। हनुमानजी के उस रूप के सामने वह केलों का बगीचा भी ढंक गया। भीमसेन अपने भाई का यह रूप देखकर आश्चर्यचकित हो गए।

    फिर भीमसेन ने कहा- हनुमानजी। मैंने आपके इस विशाल रूप को देख लिया है। अब आप अपने इस स्वरूप को समेट लीजिए। आप तो उगते हुए सूर्य के समान हैं, मैं आपकी ओर देख नहीं सकता। भीमसेन के ऐसा कहने पर हनुमानजी अपने मूल स्वरूप में आ गए और उन्होंने भीमसेन को अपने गले से लगा लिया। इससे तुरंत ही भीमसेन की सारी थकावट दूर हो गई और सब प्रकार की अनुकूलता का अनुभव होने लगा।

    गले लगाने के बाद हनुमानजी भीमसेन से कहा कि- भैया भीमसेन। अब तुम जाओ, मैं इस स्थान पर रहता हूं- यह बात किसी से मत कहना। भाई होने के नाते तुम मुझसे कोई वर मांगो। तुम्हारी इच्छा हो तो मैं हस्तिनापुर में जाकर धृतराष्ट्र पुत्रों को मार डालूं या पत्थरों से उस नगर को नष्ट कर दूं अथवा दुर्योधन को बांधकर तुम्हारे पास ले आऊँ। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, उसे मैं पूर्ण कर सकता हूं। हनुमानजी बात सुनकर भीमसेन बड़े प्रसन्न हुए और बोले- हे वानरराज। आपका मंगल हो। आपने जो कहे हैं वे काम तो होकर ही रहेंगे। बस, आपकी दयादृष्टि बनी रहे- यही मैं चाहता हूं।

    भीमसेन के ऐसा कहने पर हनुमानजी ने कहा- भाई होने के नाते मैं तुम्हारा प्रिय करूंगा। जिस समय तुम शत्रु सेना में घुसकर सिंहनाद करोगे, उस समय मैं अपने शब्दों से तुम्हारी गर्जना को बढ़ा दूंगा तथा अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठा हुआ ऐसी भीषण गर्जना करुंगा, जिससे शत्रुओं के प्राण सूख जाएंगे और तुम उन्हें आसानी से मार सकोगे। ऐसा कहकर हनुमानजी ने भीमसेन को मार्ग दिखाया और अंतर्धान हो गए।
  • श्री राम जी के पत्थर डूब गए
    लंका विजय के लिए समुद्र पर पुल बनाया जा रहा था। सुग्रीव की वानर सेना इस कार्य में लगी हुई थी। बड़े और विशाल पत्थरों को ढो कर लाया जा रहा था और समुद्र पर पुल बनाने के लिए डाला जा रहा था। ये पत्थर पानी में डूब नहीं रहे थे, बल्कि तैर रहे थे।

    राम जी भी यह देख रहे थे और यह सोचते हुए कि उन्हें भी अपना योगदान देना चाहिए। उन्होंने कुछ पत्थर उठाए और समुद्र में डाले। परंतु उनके द्वारा डाले गए पत्थर समुद्र में डूब गए। उन्होंने कई बार प्रयास किए, परंतु उनके द्वारा समुद्र में डाले गए पत्थर डूब ही जाते थे। जबकि तमाम उत्साहित वानर सेना द्वारा डाले गए पत्थर डूबते नहीं थे। राम जी थोड़े परेशान हो गए कि आखिर माजरा क्या है।

    हनुमान जी बड़ी देर से राम जी को यह कार्य करते देख रहे थे और मंद ही मंद मुस्कुरा रहे थे। अचानक राम जी की नजर उनपर पड़ी।

    हनुमान जी ने कहा -  हे प्रभु! जिसको आपने छोड़ दिया, उसे कौन बचाएगा? उसे तो डूबना ही है।
  • श्री राम की रक्षा के लिए हनुमान जी ने धरा पंचमुखी रूप
    अंजनीसुत महावीर श्रीराम भक्त हनुमान ऐसे भारतीय पौराणिक चरित्र हैं जिनके व्यक्तित्व के सम्मुख युक्ति, भक्ति, साहस एवं बल स्वयं ही बौने नजर आते हैं। संपूर्ण रामायण महाकाव्य के वह केंद्रीय पात्र हैं। श्री राम के प्रत्येक कष्ट को दूर करने में उनकी प्रमुख भूमिका है। इन्हीं हनुमान जी का एक रूप है पंचमुखी हनुमान। यह रूप उन्होंने कब क्यों और किस उद्देश्य से धारण किया इसके संदर्भ में पुराणों में एक अद्भुत कथा वर्णित है।

    श्रीराम-रावण युद्ध के मध्य एक समय ऐसा आया जब रावण को अपनी सहायता के लिए अपने भाई अहिरावण का स्मरण करना पड़ा। वह तंत्र-मंत्र का प्रकांड पंडित एवं मां भवानी का अनन्य भक्त था। अपने भाई रावण के संकट को दूर करने का उसने एक सहज उपाय निकाल लिया। यदि श्रीराम एवं लक्ष्मण का ही अपहरण कर लिया जाए तो युद्ध तो स्वत: ही समाप्त हो जाएगा। उसने ऐसी माया रची कि सारी सेना प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न हो गयी और वह श्री राम और लक्ष्मण का अपहरण करके उन्हें निद्रावस्था में ही पाताल-लोक ले गया।

    जागने पर जब इस संकट का भान हुआ और विभीषण ने यह रहस्य खोला कि ऐसा दु:साहस केवल अहिरावण ही कर सकता है तो सदा की भांति सबकी आंखें संकट मोचन हनुमानजी पर ही जा टिकीं। हनुमान जी तत्काल पाताल लोक पहुंचे। द्वार पर रक्षक के रूप में मकरध्वज से युद्ध कर और उसे हराकर जब वह पातालपुरी के महल में पहुंचे तो श्रीराम एवं लक्ष्मण जी को बंधक-अवस्था में पाया। वहां भिन्न-भिन्न दिशाओं में पांच दीपक जल रहे थे और मां भवानी के सम्मुख श्रीराम एवं लक्ष्मण की बलि देने की पूरी तैयारी थी। अहिरावण का अंत करना है तो इन पांच दीपकों को एक साथ एक ही समय में बुझाना होगा। यह रहस्य ज्ञात होते ही हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान का रूप धारण किया। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिम्ह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। इन पांच मुखों को धारण कर उन्होंने एक साथ सारे दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया और श्रीराम-लक्ष्मण को मुक्त किया।

    सागर पार करते समय एक मछली ने उनके स्वेद की एक बूंद ग्रहण कर लेने से गर्भ धारण कर मकरध्वज को जन्म दिया था अत: मकरध्वज हनुमान जी का पुत्र है, ऐसा जानकर श्रीराम ने मकरध्वज को पातालपुरी का राज्य सौंपने का हनुमान जी को आदेश दिया। हनुमान जी ने उनकी आज्ञा का पालन किया और वापस उन दोनों को लेकर सागर तट पर युद्धस्थल पर लौट आये।

    मायिल-रावण के लिए हनुमान जी ने धरा पंचमुखी रूप

    रामेश्वर में स्थापित पंचमुखी हनुमान मंदिर में इनके भव्य विग्रह के संबंध में एक भिन्न कथा है। पुराण में ही वर्णित इस कथा के अनुसार एकार एक असुर, जिसका नाम मायिल-रावण था, भगवान विष्णु का चक्र ही चुरा ले गया। जब आंजनेय हनुमान जी को यह ज्ञात हुआ तो उनके हृदय में सुदर्शन चक्र को वापस लाकर विष्णु जी को सौंपने की इच्छा जाग्रत हुई। मायिल अपना रूप बदलने में माहिर था। हनुमान जी के संकल्प को जानकर भगवान विष्णु ने हनुमान जी को आशीर्वाद दिया, साथ ही इच्छानुसार वायुगमन की शक्ति के साथ गरुड़-मुख, भय उत्पन्न करने वाला नरसिम्ह-मुख तथा हयग्रीव एवं वराह मुख प्रदान किया। पार्वती जी ने उन्हें कमल पुष्प एवं यम-धर्मराज ने उन्हें पाश नामक अस्त्र प्रदान किया। यह आशीर्वाद एवं इन सबकी शक्तियों के साथ हनुमान जी मायिल पर विजय प्राप्त करने में सफल रहे। तभी से उनके इस पंचमुखी स्वरूप को भी मान्यता प्राप्त हुई। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उनके इस पंचमुखी विग्रह की आराधना से कोई भी व्यक्ति नरसिम्ह मुख की सहायता से शत्रु पर विजय, गुरुड़ मुख की सहायता से सभी दोषों पर विजय वराहमुख की सहायता से समस्त प्रकार की समृद्धि एवं संपत्ति तथा हयग्रीव मुख की सहायता से ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। हनुमान स्वयं साहस एवं आत्मविश्वास पैदा करते हैं।
  • श्री राम व हनुमान जी का केले के पत्ते का प्रसंग
    जब रावण की सेना को हरा कर और सीता जी को लेकर श्री राम चन्द्र जी वापस अयोध्या पहुंचे, तो वहां उन सब के लौटने की ख़ुशी में एक बड़े भोज का आयोजन हुआ। वानर सेना के सभी लोग भी आमंत्रित थे और बेचारे सब ठहरे वानर ही न? तो सुग्रीव जी ने उन सब को खूब समझाया देखो! यहाँ हम मेहमान हैं और प्रभु के राज्य के लोग हमारे मेजबान। तुम सब यहाँ खूब अच्छे से पेश आना, हम वानर जाती वालों को लोग शिष्टाचार विहीन न समझें, इस बात का ध्यान रखना

    वानर भी अपनी जाती का मान रखने के लिए तत्पर थे, किन्तु एक वानर आगे आया और हाथ जोड़ कर श्री सुग्रीव से कहने लगा प्रभो ! हम प्रयास तो करेंगे कि अपना आचार अच्छा रखें, किन्तु हम ठहरे बन्दर। कहीं भूल चूक भी हो सकती है, तो अयोध्या वासियों के आगे हमारी अच्छी छवि रहे, इसके लिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप किसी को हमारा अगुवा बना दें, जो न सिर्फ हमें मार्गदर्शन देता रहे, बल्कि हमारे बैठने आदि का प्रबंध भी सुचारू रूप से चलाये, कि कही इसी चीज़ के लिए वानर आपस में लड़ने भिड़ने लगें तो हमारी छवि धूमिल होगी।

    अब वानरों में सबसे ज्ञानी, व श्री राम के सर्वप्रिय तो हनुमान ही माने जाते थे, तो यह जिम्मेदारी भी उन पर आई।

    भोज के दिन श्री हनुमान सबके बैठने वगैरह का इंतज़ाम करते रहे, और सब को ठीक से बैठने के बाद श्री राम के समीप पहुंचे, तो श्री राम के उन्हें बड़े प्रेम से कहा कि तुम भी मेरे साथ ही बैठ कर भोजन करो। अब हनुमान पशोपेश में आ गए। उनकी योजना में प्रभु के बराबर बैठना तो था ही नहीं, वे तो अपने प्रभु के जीमने के बाद ही प्रसाद के रूप में भोजन ग्रहण करने वाले थे। न तो उनके लिए बैठने की जगह ही थी ना ही केले का पत्ता जिसमे भोजन परोसा जाये। हनुमान जी पशोपेश में पड़ गए, ना प्रभु की आज्ञा ताली जाए, ना उनके साथ खाया जाए। प्रभु जान गए कि मेरे हनुमान के लिए केले का पत्ता नहीं है, ना स्थान है। उन्होंने अपनी कृपा से पास हनुमान जी के बैठने जितना स्थान बढ़ा दिया। लेकिन प्रभु ने एक और केले का पत्ता नहीं बनाया। उन्होंने कहा  हे मेरे प्रिय अति प्रिय छोटे भाई या पुत्र की तरह प्रिय हनुमान। यूं मेरे साथ मेरी ही थाली (केले का पत्ता) में भोजन करो। क्योंकि भक्त और भगवान एक हैं।

    इस पर श्री हनुमान जी बोले हे प्रभु ! आप मुझे कितने ही अपने बराबर बताएं, मैं कभी आप नहीं होऊँगा, ना तो कभी हो सकता हूँ, ना ही होने की अभिलाषा है। मैं सदा सर्वदा से आपका सेवक हूँ, और रहूँगा, आपके चरणों में ही मेरा स्थान था, और रहेगा, तो मैं आपकी थाल में से खा ही नहीं सकता।

    तब श्री राम ने अपने सीधे हाथ की मध्यमा अंगुली से केले के पत्ते के मध्य में एक रेखा खींच दी जिससे वह पत्ता एक भी रहा और दो भी हो गया। एक भाग में प्रभु ने भोजन किया और दूसरे अर्ध में हनुमान को कराया।
  • हनुमान जी का मोतीयों की माला तोडना
    अयोध्या में राज्याभिषेक होने के बाद प्रभु श्रीराम ने उन सभी को सम्मानित करने का निर्णय लिया जिन्होंने लंका युद्ध में रावण को पराजित करने में उनकी सहायता की थी। उनकी सभा में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया जिसमें पूरी वानर सेना को उपहार देकर सम्मानित किया गया। हनुमान को भी उपहार लेने के लिये बुलाया गया, हनुमान मंच पर गये मगर उन्हें उपहार की कोई जिज्ञासा नहीं थी।

    हनुमान को ऊपर आता देखकर भावना से अभिप्लुत श्रीराम ने उन्हें गले लगा लिया और कहा कि हनुमान ने अपनी निश्छल सेवा और पराक्रम से जो योगदान दिया है उसके बदले में ऐसा कोई उपहार नहीं है जो उनको दिया जा सके। मगर अनुराग स्वरूप माता सीता ने अपना एक मोतियों का हार उन्हें भेंट किया। उपहार लेने के उपरांत हनुमान जी माला के एक-एक मोती को तोड़कर देखने लगे, ये देखकर सभा में उपस्थित सदस्यों ने उनसे इसका कारण पूछा तो हनुमान ने कहा कि वो ये देख रहे हैं मोतियों के अन्दर उनके प्रभु श्रीराम और माता सीता हैं कि नहीं, क्योंकि यदि वो इनमें नहीं हैं तो इस हार का उनके लिये कोई मूल्य नहीं है।

    ये सुनकर कुछ लोगों ने कहा कि हनुमान के मन में प्रभु श्रीराम और माता सीता के लिये उतना प्रेम नहीं है जितना कि उन्हें लगता है। इतना सुनते ही हनुमान ने अपनी छाती चीर के लोगों को दिखाई और सभी ये देखकर स्तब्द्ध रह गये कि वास्त्व में उनके ह्रदय में प्रभु श्रीराम और माता सीता की छवि विद्यमान थी।
  • हनुमान जी का पंचमुखी अवतार
    हनुमान जी का पंचमुखी अवतार भी रामायण युद्ध् कि ही एक घटना है। अहिरावण जो कि काले जादू का ज्ञाता था, उसने राम और लछमण का सोते समय हरण कर लिया और उन्हें विमोहित करके पाताल-लोक में ले गया। उनकी खोज में हनुमान भी पाताललोक पहुँच गये।

    पाताल-लोक के मुख्यद्वार एक युवा प्राणी मकरध्वज पहरा देता था जिसका आधा शरीर मछली का और आधा शरीर वानर का था। मकरध्वज के जन्म कि कथा भी बहुत रोचक है। यद्यपि हनुमान ब्रह्मचारी थे मगर मकरध्वज उनका ही पुत्र था। लंका दहन के पश्चात जब हनुमान पूँछ में लगी आग को बुझाने समुद्र में गये तो उनके पसीने की बूंद समुद्र में गिर गई। उस बूंद को एक मछली ने पी लिया और वो गर्भवती हो गई। इस बात का पता तब चला जब उस मछली को अहिरावण की रसोई में लाया गया। मछली के पेट में से जीवित बचे उस विचित्र प्राणी को निकाला गया। अहिरवण ने उसे पाल कर बड़ा किया और उसे पातालपुरी के द्वार का रक्षक बना दिया।

    हनुमान जी इन सभी बातों से अनिभिज्ञ थे। यद्यपि मकरध्वज को पता था कि हनुमान जी उसके पिता हैं मगर वो उन्हें पहचान नहीं पाया क्योंकि उसने पहले कभी उन्हें देखा नहीं था।

    जब हनुमान जी ने अपना परिचय दिया तो वो जान गया कि ये मेरे पिता हैं मगर फिर भी उसने हनुमान जी के साथ युद्ध करने का निश्चय किया क्योंकि पातालपुरि के द्वार की रक्षा करना उसका प्रथम कर्तव्य था। हनुमान जी ने बड़ी आसानी से उसे अपने आधीन कर लिया और पातलपुरी के मुख्यद्वार पर बाँध दिया।

    पातालपुरी में प्रवेश करने के पश्चात हनुमान ने पता लगा लिया कि अहिरावण का वध करने के लिये उन्हे पाँच दीपकों को एक साथ बुझाना पड़ेगा। अतः उन्होंने पन्चमुखी अवतार(श्री वराह, श्री नरसिम्हा, श्री गरुण, श्री हयग्रिव और स्वयं) धारण किया और एक साथ में पाँचों दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया। अहिरावण का वध होने के पश्चात हनुमान ने प्रभु श्रीराम के आदेशानुसार मकरध्वज को पातालपुरि का नरेश बना दिया।
  • हनुमान जी का संजीवनी बूटी लाना
    लंका युद्ध में जब लछमण मूर्छित होने पर हनुमान जी को ही द्रोणागिरी पर्वत पर से संजीवनी बूटी लाने भेजा गया। रामचरितमानस में मिले वर्णन के अनुसार कालनेमि नाम का एक राक्षस था। कालनेमि ने रावण को रामजी की भक्ति करने की सलाह दी। रावण यह सुनकर गुस्से में आ गया। तब कालनेमि ने मन ही मन विचार किया कि इस दुष्ट के हाथों मरने से अच्छा है मैं राम जी के हाथों मरूं। वह मन ही मन ऐसा सोचकर चल दिया। उसने मार्ग में माया रची उसने सुंदर तालाब, मंदिर और बगीचा बनाया। हनुमानजी ने सुंदर आश्रम देखकर सोचा कि मुनि से पूछकर जल पी लूं। राक्षस वहां कपट वेष बनाकर आया हुआ था। वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को मोहित करना चाहता था। हनुमानजी ने उसके पास जाकर चरण स्पर्श किए। वह श्रीरामजी के गुणों की कथा कहने लगा। वह बोला रावण और राम में युद्ध हो रहा है। रामजी जीतेंगे इसमें संदेह नहीं है। मैं यहां रहता हुआ भी सब देख रहा हूं। मुझे ज्ञानदृष्टि बहुत बड़ा बल है। हनुमानजी ने उससे जल मांगा, तो उसने कमंडल दे दिया। वह बोला- तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूं, जिससे तुम ज्ञान प्राप्त हो जाएगा। तालाब में प्रवेश करते ही एक मगरी ने अकुलाकर उसी समय हनुमानजी का पैर पकड़ लिया। हनुमानजी ने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़कर आकाश को चली। उसने कहा हे वानर मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि यह मुनि नहीं है, घोर निशाचर है मेरी बात मानों मैं सच कह रही हूं। ऐसा कहकर ज्यो ही वह अप्सरा गई। इधर हनुमानजी निशाचर के पास गए। हनुमानजी ने कहा है मुनि पहले गुरु दक्षिणा ले लीजिए। उसके बाद आप मुझे मंत्र दीजिएगा। हनुमानजी ने उसके सिर को पूंछ लपेटकर उसे पछाड़ दिया। मरते समय उसने अपना राक्षसी शरीर प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोड़े। उसके बाद हनुमानजी वहां से उसी पर्वत की ओर चल दिए। उन्होंने पर्वत को देखा मगर वो बूटी को भली-भांती पहचान नहीं पाये, और पुनः अपने पराक्रम का परिचय देते हुए वो पूरा द्रोणागिरी पर्वत ही रण-भूमि में उठा लाये और परिणामस्वरूप लछमण के प्राण की रक्षा की। भावुक होकर श्रीराम ने हनुमान को ह्र्दय से लगा लिया और बोले कि हनुमान तुम मुझे भ्राता भरत की भांति ही प्रिय हो।
  • हनुमान जी का लंका दहन
    अपनी शक्तियों का स्मरण होते ही हनुमान ने अपना रूप विस्तार किया और पवन-वेग से सागर को उड़के पार करने लगे। रास्ते में उन्हें एक पर्वत मिला और उसने हनुमान से कहा कि उनके पिता का उसके ऊपर ॠण है, साथ ही उस पर्वत ने हनुमान से थोड़ा विश्राम करने का भी आग्रह किया मगर हनुमान ने किन्चित मात्र भी समय व्यर्थ ना करते हुए पर्वतराज को धन्यवाद किया और आगे बढ़ चले। आगे चलकर उन्हें एक राक्षसी मिली जिसने कि उन्हें अपने मुख में घुसने की चुनौती दी, परिणामस्वरूप हनुमान ने उस राक्षसी की चुनौती को स्वीकार किया और बड़ी ही चतुराई से अति लघुरूप धारण करके राक्षसी के मुख में प्रवेश करके बाहर आ गये। अंत में उस राक्षसी ने संकोचपूर्वक ये स्वीकार किया कि वो उनकी बुद्धिमता की परीक्षा ले रही थी।

    आखिरकार हनुमान सागर पार करके लंका पँहुचे और लंका की शोभा और सुनदरता को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। और उनके मन में इस बात का दुःख भी हुआ कि यदी रावण नहीं माना तो इतनी सुन्दर लंका का सर्वनाश हो जायेगा। ततपश्चात हनुमान ने अशोक-वाटिका में सीतजी को देखा और उनको अपना परिचय बताया। साथ ही उन्होंने माता सीता को सांत्वना दी और साथ ही वापस प्रभु श्रीराम के पास साथ चलने का आग्रह भी किया। मगर माता सीता ने ये कहकर अस्वीकार कर दिया कि ऐसा होने पर श्रीराम के पुरुषार्थ् को ठेस पँहुचेगी। हनुमान ने माता सीता को प्रभु श्रीराम के सन्देश का ऐसे वर्णन किया जैसे कोई महान ज्ञानी लोगों को ईश्वर की महानता के बारे में बताता है। माता सीता से मिलने के पश्चात, हनुमान प्रतिशोध लेने के लिये लंका को तहस-नहस करने लगे। उनको बंदी बनाने के लिये रावण पुत्र मेघनाद ने ब्रम्हास्त्र का प्रयोग किया। ब्रम्ह्मा जी का सम्मान करते हुए हनुमान ने स्वयं को ब्रम्हास्त्र के बन्धन मे बन्धने दिया। साथ ही उन्होंने विचार किया कि इस अवसर का लाभ उठाकर वो लंका के विख्यात रावण से मिल भी लेंगे और उसकी शक्ति का अनुमान भी लगा लेंगे। इन्हीं सब बातों को सोचकर हनुमान ने स्वयं को रावण के समक्ष बंदी बनकर उपस्थित होने दिया। जब उन्हे रावण के समक्ष लाया गया तो उन्होंने रावण को प्रभु श्रीराम का चेतावनी भरा सन्देश सुनाया और साथ ही ये भी कहा कि यदि रावण माता सीता को आदर-पूर्वक प्रभु श्रीराम को लौटा देगा तो प्रभु उसे क्षमा कर देंगे। क्रोध मे आकर रावण ने हनुमान को म्रित्युदंड देने का आदेश दिया मगर रावण के छोटे भाई विभीषण ने ये कहकर बीच-बचाव किया कि एक दूत को मारना आचारसंहिता के विपरीत है। ये सुनकर रावण ने हनुमान की पूंछ में आग लगाने का आदेश दिय। जब रावण के सैनिक हनुमान की पूंछ मे कपड़ा लपेट रहे थे तब हनुमान ने अपनी पूंछ को खूब लम्बा कर लिया और सैनिकों को कुछ समय तक परेशान करने के पश्चात पूंछ मे आग लगाने का अवसर दे दिया। पूंछ मे आग लगते ही हनुमान ने बन्धनमुक्त होके लंका को जलाना शुरु कर दिया और अंत मे पूंछ मे लगी आग को समुद्र मे बुझा कर वापस प्रभु श्रीराम के पास आ गये।

    श्री हनुमान शिव अवतार है। पुराणों में लंकादहन के पीछे भी एक ओर रोचक बात जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई।

    एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया। किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया। वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया। उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया। भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया।

    दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया गया। इसलिए उनकी सहमति के बिना यह शुभ नहीं होगा। तब उसने शिवजी से माता पार्वती को भी मांग लिया और भोलेभंडारी शिव ने इसे भी स्वीकार कर लिया। जब रावण उस सोने के महल सहित मां पार्वती को ले जाना लगा। तब अचंभित और दु:खी माता पार्वती ने विष्णु को स्मरण किया और उन्होंने आकर माता की रक्षा की।

    जब माता पार्वती अप्रसन्न हो गई तो शिव ने अपनी गलती को मानते हुए मां पार्वती को वचन दिया कि त्रेतायुग में मैं वानर रूप हनुमान का अवतार लूंगा उस समय तुम मेरी पूंछ बन जाना। जब मैं माता सीता की खोज में इसी सोने के महल यानी लंका जाऊंगा तो तुम पूंछ के रूप में लंका को आग लगाकर रावण को दण्डित करना।

    यही प्रसंग भी शिव के श्री हनुमान अवतार और लंकादहन का एक कारण माना जाता है।
  • हनुमान को उनकी अदभुत शक्तियों का स्मरण
    बचपन में हनुमान जी बड़े ही नटखट थे। प्रायः वे ऋषियों के आसन उठाकर पेड़ पर टांग देते, उनके कमंडल का जल गिरा देते, उनके वस्त्र फाड़ डालते, कभी उनकी गोद में बैठकर खेलते और एकाएक उनकी दाढ़ी नोचकर भाग खड़े होते। उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। अंजना और केसरी ने कई उपाय किए परंतु हनुमान जी राह पर नहीं आए। अंत में ऋषियों ने विचार करके यह निश्चय किया कि हनुमान को अपने बल का घमंड है अतः उन्हें अपने बल भूलने का शाप दिया जाए और जब तक कोई उन्हें उनके बल का स्मरण नहीं कराएगा वह भूले रहेंगे। केसरी ने हनुमान को सूर्य के पास विद्याध्ययन के लिये भेजा और वह शीघ्र ही सर्वविद्या पारंगत होकर लौटे।

    सीता का पता लगाने के समय जाम्बवन्त के याद दिलाने पर उन्हें अपनी अपार शक्ति की पुनः याद आ गई। सीता माता की खोज में वानरों का एक दल दक्षिण तट पे पँहुच गया। मगर इतने विशाल सागर को लांघने का साहस किसी में भी नहीं था। स्वयं हनुमान भी बहुत चिन्तित थे कि कैसे इस समस्या का समाधान निकाला जाये। उसी समय जामवन्त और बाकी अन्य वानरों ने हनुमान को उनकी अदभुत शक्तियों का स्मरण कराया। और उन्होंने समुद्र को लांघ कर अशोक वाटिका में सीता जी का पता लगाया तथा लंका दहन किया। उनका बल पौरुष देखकर सीताजी को बड़ा संतोष हुआ और उन्होंने हनुमानजी को अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों के स्वामी होने का वरदान दिया। इस प्रकार हनुमान जी सर्वशक्तिमान देवता बने और श्री राम की सेवा में रत रहे।

    हनुमान जी अपने भक्तों के संकट क्षण में हर लेते हैं। वह शिवजी के समान अपने भक्तों पर शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं और उन्हीं की भांति अपने उपासकों को भूत-पिशाच के भय से मुक्त रखते हैं। चाहे कैसे भी दुर्गम कार्य हैं उनकी कृपा से सुगम हो जाते हैं। उनकी उपासना से सारे रोगों और सभी प्रकार के कष्टों का निवारण हो जाता है।
  • भक्त और भगवान का मिलन
    रामायण के सुन्दर-काण्ड में हनुमान जी के साहस और देवाधीन कर्म का वर्णन किया गया है। हनुमानजी की भेंट रामजी से उनके वनवास के समय तब हुई जब रामजी अपने भ्राता लछ्मन के साथ अपनी पत्नी सीता की खोज कर रहे थे। सीता माता को लंकापति रावण छल से हरण करके ले गया था। सीताजी को खोजते हुए दोनो भ्राता ॠषिमुख पर्वत के समीप पँहुच गये जहाँ सुग्रीव अपने अनुयाईयों के साथ अपने ज्येष्ठ भ्राता बाली से छिपकर रहते थे। वानर-राज बाली ने अपने छोटे भ्राता सुग्रीव को एक गम्भीर मिथ्याबोध के चलते अपने साम्राज्य से बाहर निकाल दिया था और वो किसी भी तरह से सुग्रीव के तर्क को सुनने के लिये तैयार नहीं था। साथ ही बाली ने सुग्रीव की पत्नी को भी अपने पास बलपूर्वक रखा हुआ था।

    राम और लछ्मण को आता देख सुग्रीव ने हनुमान को उनका परिचय जानने के लिये भेजा। हनुमान् एक ब्राह्मण के वेश में उनके समीप गये। हनुमान के मुख़ से प्रथम शब्द सुनते ही श्रीराम ने लछ्मण से कहा कि कोई भी बिना वेद-पुराण को जाने ऐसा नहीं बोल सकता जैसा इस ब्राह्मण ने बोला। रामजी को उस ब्राह्मण के मुख, नेत्र, माथा, भौंह या अन्य किसी भी शारीरिक संरचना से कुछ भी मिथ्या प्रतीत नहीं हुआ।

    रामजी ने लछ्मण से कहा कि इस ब्राह्मण के मन्त्रमुग्ध उच्चारण को सुनके तो शत्रु भी अस्त्र त्याग देगा। उन्होंने ब्राह्मण की और प्रसन्नसा करते हुए कहा कि वो राजा निःसंकोच ही सफ़ल होगा जिसके पास ऐसा गुप्तचर होगा। श्रीराम के मुख़ से इन सब बातों को सुनकर हनुमानजी ने अपना वास्तविक रूप धारण किया और श्रीराम के चरणों में नतमष्तक हो गये। श्रीराम ने उन्हें उठाकर अपने ह्र्दय से लगा लिया। उसी दिन एक भक्त और भगवान का हनुमान और प्रभु राम के रूप मे अटूट और अनश्वर मिलन हुआ। तत्पश्चात हनुमान जी ने श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता करवाई। इसके पश्चात ही श्रीराम ने बाली को मारकर सुग्रीव को उनका सम्मान और गौरव वापस दिलाया और लंका युद्ध में सुग्रीव ने अपनी वानर सेना के साथ श्रीराम का सहयोग दिया।
  • माँ अंजना का क्रोधित होना
    भगवान श्री राम रावण का वध व विभीषण का राजभिषेक करके माँ सीता, लक्ष्मण, हनुमान, विभीषण, जांबवत आदि के साथ अयोध्या लौट रहे थे। मार्ग में हनुमान जी ने श्रीरामजी से अपनी माँ के दर्शन की आज्ञा माँगी कि प्रभु ! अगर आप आज्ञा दें तो मैं माता जी के चरणों में मत्था टेक आऊँ।

    श्रीराम ने कहाः " वे केवल तुम्हारी ही माता नहीं, मेरी और लखन की भी माता हैं चलो ! हम भी चलते हैं।"

    और श्रीरामजी स्वयं सबके साथ माँ अंजना के दर्शन के लिए गये।

    हनुमानजी ने दौड़कर गदगद कंठ एवं अश्रुपूरित नेत्रों से माँ को प्रणाम किया। वर्षों बाद पुत्र को अपने पास पाकर माँ अंजना अत्यंत हर्षित होकर हनुमान का मस्तक सहलाने लगीं। माँ अंजना ने पुत्र को हृदय से लगा लिया। हनुमान जी ने माँ को अपने साथ आये लोगों का परिचय दिया कि माँ ! ये श्रीरामचन्द्रजी हैं, ये माँ सीताजी हैं और ये लखन भैया हैं। ये जांबवंत जी हैं, ये माँ सीताजी हैं और ये लखन भैया हैं। ये जांबवत जी हैं....  आदि आदि।

    श्रीरामजी ने कहाः "माँ ! मैं दशरथपुत्र राम आपको प्रणाम करता हूँ।"

    माँ सीता व लक्ष्मण सहित बाकी के सब लोगों ने भी उनको प्रणाम किया। माँ अंजना का हृदय भर आया। उन्होंने गदगद कंठ एवं सजल नेत्रों से हनुमान जी से कहाः "बेटा हनुमान ! आज मेरा जन्म सफल हुआ। मेरा माँ कहलाना सफल हुआ। मेरा दूध तूने सार्थक किया। बेटा ! लोग कहते हैं कि माँ के ऋण से बेटा कभी उऋण नहीं हो सकता लेकिन मेरे हनुमान ! तू मेरे ऋण से उऋण हो गया। तू तो मुझे माँ कहता ही है किंतु आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी मुझे माँ कहा है ! अब मैं केवल तुम्हारी ही माँ नहीं, श्रीराम, लखन, शत्रुघ्न और भरत की भी माँ हो गयी, इन असंख्य पराक्रमी वानर-भालुओं की भी माँ हो गयी। मेरी कोख सार्थक हो गयी। जिसके कारण स्वयं प्रभु ने मेरे यहाँ पधार कर मुझे कृतार्थ किया।

    हनुमानजी ने फिर से अपनी माँ के श्रीचरणों में मत्था टेका और हाथ जोड़ते हुए शुरू से लेकर अंत तक की कथा सुनाई और कहाः "करूणानिधान प्रभु श्री राम की आज्ञा पाकर मैं लंका गया और अशोक वाटिका में बैठी हुई माँ सीता का पता लगाया तथा उनकी खबर प्रभु को दी। फिर प्रभु ने समुद्र पर पुल बँधवाया और वानर-भालुओं को साथ लेकर राक्षसों का वध किया और विभीषण को लंका का राज्य देकर प्रभु माँ सीता एवं लखन के साथ अयोध्या पधार रहे हैं।"

    अचानक माँ अंजना कोपायमान हो उठीं। उन्होंने हनुमान को धक्का मार दिया और क्रोधसहित कहा "हट जा, मेरे सामने। तूने व्यर्थ ही मेरी कोख से जन्म लिया। मैंने तुझे व्यर्थ ही अपना दूध पिलाया। तूने मेरे दूध को लजाया है। तू मुझे मुँह दिखाने क्यों आया?"

    श्रीराम, लखन भैया सहित अन्य सभी आश्चर्यचकति हो उठे कि माँ को अचानक क्या हो गया? वे सहसा कुपित क्यों हो उठीं? अभी-अभी ही तो कह रही थीं कि मेरे पुत्र के कारण मेरी कोख पावन हो गयी.... इसके कारण मुझे प्रभु के दर्शन हो गये.... और सहसा इन्हें क्या हो गया जो कहने लगीं कि तूने मेरा दूध लजाया है।

    हनुमानजी हाथ जोड़े चुपचाप माता की ओर देख रहे थे। माँ अंजना कहे जा रही थीं- "तुझे और तेरे बल पराक्रम को धिक्कार है। तू मेरा पुत्र कहलाने के लायक ही नहीं है। मेरा दूध पीने वाले पुत्र ने प्रभु को श्रम दिया? अरे, रावण को लंकासहित समुद्र में डालने में तू समर्थ था। तेरे जीवित रहते हुए भी परम प्रभु को सेतु-बंधन और राक्षसों से युद्ध करने का कष्ट उठाना पड़ा। तूने मेरा दूध लज्जित कर दिया। धिक्कार है तुझे ! अब तू मुझे अपना मुँह मत दिखाना।" हनुमानजी सिर झुकाते हुए कहाः " माँ ! मुझे केवल माँ सीता को खोजने की ही आज्ञा थी। मुझे माँ सीता को लाने का आदेश नहीं था अगर मैं ऐसा करता तो आज्ञा की अवेहलना होती और प्रभु का लीलाकार्य कैसे पूर्ण होता?"

    तब जाबवंतजी ने कहाः "माँ ! क्षमा करें। हनुमान जी सत्य कह रहे हैं। हनुमानजी को आज्ञा थी कि सीताजी की खोज करके आओ। हम लोगों ने इनके सेवाकार्य बाँध रखे थे। अगर नहीं बाँधते तो प्रभु की दिव्य निगाहों से दैत्यों की मुक्ति कैसे होती? प्रभु के दिव्य कार्य में अन्य वानरों को जुड़ने का अवसर कैसे मिलता? दुष्ट रावण का उद्धार कैसे होता और प्रभु की निर्मल कीर्ति गा-गाकर लोग अपना दिल पावन कैसे करते? माँ आपका लाल निर्बल नहीं है लेकिन प्रभु की अमर गाथा का विस्तार हों, इसीलिए तुम्हारे पुत्र की सेवा की मर्यादा बँधी हुई थी।"

    श्रीरामजी ने कहाः "माँ ! तुम हनुमान की माँ हो और मेरी भी माँ हो। तुम्हारे इस सपूत ने तुम्हारा दूध नहीं लजाया है। माँ ! इसने तो केवल मेरी आज्ञा का पालन किया है, मर्यादा में रहते हुए सेवा की है।" रघुनाथ जी के वचन सुनकर माता अंजना का क्रोध शांत हुआ। फिर माता ने कहा "अच्छा मेरे पुत्र ! मेरे वत्स ! मुझे इस बात का पता नहीं था। मेरा पुत्र, मर्यादा पुरुषोत्तम का सेवक मर्यादा से रहे -  यह भी उचित ही है। तूने मेरा दूध नहीं लजाया है, वत्स !"

    माँ अंजना ने आशीर्वाद देते हुए कहाः "बेटा ! सदा प्रभु को श्रीचरणों में रहना। तेरी माँ ये जनकनंदिनी ही हैं। तू सदा निष्कपट भाव से अत्यंत श्रद्धा-भक्तिपूर्वक परम प्रभु श्री राम एवं माँ सीताजी की सेवा करते रहना।"
  • हनुमान जी के मंगलवार व्रत की कथा
    एक ब्राह्मण दम्पत्ति की कोई सन्तान नहीं थी, जिसके कारण दोनों पति-पत्नी काफी दुःखी रहते थे। काफी सोच विचार के बाद वो ब्राह्मण हनुमान जी की पूजा आराधना करने के लिए सुदूर वन में चला गया. वह हर रोज पूजा के बाद महावीर जी से एक पुत्र की कामना प्रकट किया करता था। घर पर उसकी पत्नी भी हर मंगलवार पुत्र की प्राप्ति के लिये व्रत किया करती थी। मंगल के दिन वह व्रत के अंत में भोजन बनाकर हनुमान जी को भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन ग्रहण करती थी।

    एक बार एक व्रत के दिन किसी कारण ब्राह्मणी भोजन नहीं बना सकी। उस दिन वह इस कारण से हनुमान जी का भोग भी नहीं लगा पाई। वह अपने मन में इस बात का प्रण करके सो गई कि अब अगले मंगलवार को हनुमान जी को भोग लगाकर ही अन्न ग्रहण करेगी।

    वह भूखी प्यासी छह दिन इसी अवस्था में पड़ी रही। मंगलवार के दिन तो उसे इतने दिन नहीं खाने पीने के कारण मूर्छा आ गई , तब हनुमान जी उसकी लग्न और निष्ठा को देखकर अति प्रसन्न हो गये। उन्होंने उसे दर्शन दिए और कहा -  हे ब्राह्मणी, मैं तुम्हारी लग्न और निष्ठा को देखकर अति प्रसन्न हुआ हूँ। मैं तुम्हें एक सुन्दर बालक का वरदान देता हूँ जो तुम्हारी बहुत सेवा किया करेगा। हनुमान जी मंगलवार को बाल रुप में उसको दर्शन देकर अन्तर्धान हो गए। उधर सुन्दर बालक पाकर ब्राह्मणी भी अति प्रसन्न हुई। ब्राह्मणी ने प्यार से उस बालक का नाम मंगल रखा।

    कुछ समय पश्चात् ब्राह्मण भी वन से लौटकर आया। प्रसन्नचित्त सुन्दर बालक को घर में खेलता देखकर वह अपनी पत्नी से बोला -  यह बालक कौन है। पत्नी ने कहा -  मंगलवार के व्रत से प्रसन्न हो हनुमान जी ने दर्शन दे मुझे बालक दिया है। पत्नी की बात छल से भरी जान उसने सोचा यह कुलटा व्याभिचारिणी अपनी कलुषता छुपाने के लिये बात बना रही है। एक दिन उसका पति कुएँ पर पानी भरने चला तो पत्नी ने कहा कि मंगल को भी साथ ले जाओ। वह मंगल को साथ ले चला और उसको कुएँ में डालकर वापस पानी भरकर घर आया तो पत्नी ने पूछा कि मंगल कहाँ है? तभी मंगल मुस्कुराता हुआ घर आ गया। उसको देख ब्राह्मण आश्चर्य चकित हो गया लेकिन कुछ नहीं बोला, रात्रि में उससे हनुमान जी ने स्वप्न में कहा - हे ब्राह्मण, यह सुन्दर बालक मैंने दिया है। तुम पत्नी को कुलटा क्यों कहते हो? पति यह जानकर हर्षित हुआ और साथ में अपने ऊपर उसे काफी पछतावा भी हुआ। फिर पति-पत्नी मंगल का व्रत रख अपनी जीवन आनन्दपूर्वक व्यतीत करने लगे।

    जो मनुष्य मंगलवार व्रत कथा को पढ़ता या सुनता है और नियम से व्रत रखता है उसे हनुमान जी की कृपा से सब कष्ट दूर होकर सर्व सुख प्राप्त होता है।